आसक्ति क्या है? कैसे यह बंधन बन जाती है और हम इससे मुक्त हो सकते हैं
परिचय
मनुष्य जीवन की सबसे प्राचीन और स्वाभाविक खोज है — सुख। हम जीवन के हर मोड़ पर, हर निर्णय में, हर संबंध में यही तलाशते हैं कि कहाँ अधिक शांति, अधिक संतोष और अधिक आनंद मिलेगा। लेकिन विडंबना यह है कि यह खोज जितनी तेज़ होती जाती है, उतने ही सूक्ष्म और अदृश्य बंधनों में हम जकड़ते जाते हैं।
इन बंधनों की सबसे सूक्ष्म, लेकिन सबसे गहरी जड़ होती है — आसक्ति।
आसक्ति क्या है?
आसक्ति केवल किसी से प्रेम करना नहीं है। यह उस प्रेम में जब "मेरा" जुड़ जाता है — मेरा व्यक्ति, मेरी वस्तु, मेरे विचार — तभी वह बंधन का रूप ले लेती है।
जब हम किसी के बिना अधूरे महसूस करने लगें, जब कोई विचार या वस्तु हमारी स्थायी मानसिक आवश्यकता बन जाए, और जब किसी स्थान, लक्ष्य या पहचान से हम अपनी अस्मिता जोड़ने लगें — तो यही है आसक्ति।
यह एक ऐसा मानसिक तंतु है, जो दिखाई नहीं देता, लेकिन हमारी हर सोच, हर भावना और व्यवहार को बाँधकर रखता है।
बंधनों का जन्म कैसे होता है?
प्रारंभिक स्तर पर हर जुड़ाव सुखद लगता है। कोई हमें अच्छा लगता है, उसकी बातों में अपनापन महसूस होता है — हम धीरे-धीरे उसके अभ्यस्त हो जाते हैं।
लेकिन जब यह जुड़ाव आवश्यकता बन जाए — "वह नहीं होगा तो मैं ठीक नहीं रहूँगा" — तो यह एक मानसिक कैद बन जाती है।
यही बात किसी भी चीज़, विचारधारा या आध्यात्मिक खोज पर भी लागू होती है।
बंधनों का मूल डर है — खोने का डर, अकेले पड़ जाने का डर, अधूरे रह जाने का डर। और इस डर को ढँकने के लिए हम आसक्ति की चादर ओढ़ लेते हैं।
"मुक्ति की चाह" भी एक बंधन?
यहाँ एक बड़ा विरोधाभास सामने आता है।
जब कोई व्यक्ति पूछता है — "मैं बंधनों से कैसे मुक्त हो सकता हूँ?" — तो वह एक और चाह को जन्म दे रहा होता है।
बंधनों से मुक्ति की चाह भी एक आसक्ति है — वह आत्मिक विकास की आकांक्षा में छुपा हुआ “मैं कुछ और बन जाऊँ” का अहंकार है।
मन बहुत चतुर है। वह आध्यात्म की भाषा में भी आपको उलझा सकता है।
आपको लगेगा कि आप साधना कर रहे हैं, ध्यान कर रहे हैं, उपवास कर रहे हैं — लेकिन यह सब भी अगर किसी प्राप्ति की लालसा से हो रहा है, तो वह भी एक बंधन है।
> "असली अध्यात्म वहाँ शुरू होता है जहाँ चाह समाप्त होती है — पाने की भी और त्यागने की भी।"
सच्ची मुक्ति कैसे संभव है?
जब आप सब चाह छोड़ देते हैं, तब ही सच्चा साक्षीभाव जन्म लेता है।
जब न तो कुछ पाना है, न कुछ बदलना है, न किसी को पकड़ना है — तब जो भीतर बचता है, वही है शुद्ध अस्तित्व, वही है आत्मा की सहज स्थिति।
साक्षीभाव का अर्थ है — देखना, लेकिन न जुड़ना।
जैसे एक शांत झील में चाँद दिखता है, लेकिन झील चाँद को पकड़ने नहीं जाती — वैसे ही जब आप जीवन को देखना सीखते हैं, बिना किसी लालच या डर के, तब आप वास्तव में मुक्त होते हैं।
निष्कर्ष
बंधनों से मुक्ति कोई साध्य नहीं, न कोई उपलब्धि — यह एक सहज स्थिति है।
जब मन शांत हो जाए, और जीवन को जैसा है वैसा स्वीकार करने की शक्ति आ जाए, तब आप हर स्थिति में स्थिर रह सकते हैं — वही है परम शांति, वही है आनंद का मूल स्रोत।
> "मुक्ति बाहर से नहीं आती, वह भीतर से प्रकट होती है — जब मन का कोलाहल थम जाता है।"