सनातन धर्म क्या है | What is Sanatan Dharma
आज के समाज से प्रेरित: सनातन धर्म का अर्थ
सौरभ की संघर्ष गाथा: सनातन धर्म की जीवंत प्रेरणा
परंतु, सौरभ इसे संतुष्ट नही हुआ। उसने इसकी शिकायत सरकार से करने की ठानी। उसने इस फैसले को समाज के कुछ करीबी लोगो के साथ साझा किया। सबने उसके इस फैसले का विरोध किया। उनका कहना था की मुखिया जी तो बड़े अच्छे व्यक्ति हैं। कोर्ट कचहरी इत्यादि जैसे मामलों मे हमारी मदद किया करते हैं। और सरकारी कामों में ऐसा तो चलता ही रहता है, सारे अफसर भी पैसे खाते हैं, उपर से ये डेढ़ लाख की राशि भी तो मुफ्त मे ही मिली है, इसलिए तुम्हे संतोष कर लेना चाहिए।
अधर्म के विरुद्ध अपने ही सगे संबंधियों के खिलाफ खड़े अर्जुन के मन मे जो द्वंद्व था, वही सौरभ ने भी महसूस किया।
उसके भीतर विभिन्न विचार उमर घूमड़ रहे थे। समाज की सुने, या जो गलत है उसका विरोध करे। खुद के सिद्धांतों का अगर पालन करें, तो समाज से विमुख होना पड़ेगा, और अगर समाज की सुने, तो सिद्धांतों की बलि देनी होगी।
श्रीराम ने जब सिद्धांतों का पालन किया, तो उनका साथ देने क लिए हनुमान खड़े थे, लेकिन यहाँ तो कोई भी ऐसा नही जान पड़ता था जो हनुमान बनकर सौरभ के आने वाले संकटों को हर लेता। इस बिच अगर बात कोर्ट कचहरी तक आ जाती तो सौरभ का पूरा घर बिखर जाता।
लेकिन इतिहास यही सिखाता है कि हर युग में धर्मयुद्ध पहले व्यक्ति के अंतर्मन में ही शुरू होता है। महाभारत में भी युद्ध कुरुक्षेत्र में बाद में हुआ, पहले वह अर्जुन के मन में लड़ा गया था। और जब अर्जुन ने अपने मोह, भ्रम, और भय को त्याग कर श्रीकृष्ण के वचनों को आत्मसात किया, तभी धर्म की स्थापना संभव हो सकी। सौरभ के भीतर भी यही युद्ध चल रहा था। यह केवल एक योजना की राशि का युद्ध नहीं था, यह उस व्यवस्था के विरुद्ध था जिसमें चुप रहना ही सामान्यता बन चुका था।
यह कोई तलवारों और शस्त्रों का युद्ध नहीं था, परन्तु यह उससे कहीं अधिक घातक और गहरा युद्ध था – यह था विचारों का युद्ध, नैतिकता बनाम व्यावहारिकता का युद्ध, और सबसे बढ़कर आत्मा बनाम समाज का युद्ध। यह युद्ध उतना ही जटिल और परखने योग्य था जितना रामायण में राम और रावण के बीच, या महाभारत में पांडव और कौरवों के बीच। बाहरी रूप से यह एक मामूली बात लग सकती है – कुछ पैसों की हेरफेर, लेकिन यह उस बर्फ की चोटी थी जिसके नीचे भ्रष्टाचार, भय, चुप्पी और पाखंड की एक पूरी परत थी।
इस छोटे से गांव में, जो बाहरी दृष्टि से एक सामान्य घटना लग सकती है, वह वास्तव में एक विशाल वैचारिक युद्ध का केंद्र बन रही थी। एक ओर मुखिया था जो वर्षों से सत्ता में था, समाज की मान्यता प्राप्त थी, और दूसरी ओर सौरभ था – अकेला, कमजोर, लेकिन सत्य के साथ। यही द्वंद्व तो श्रीराम और रावण के बीच था। रावण ज्ञानी था, शक्तिशाली था, लेकिन उसके भीतर अहंकार और अधर्म था। श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम थे – निष्ठावान, सत्यनिष्ठ, और धैर्यवान।
आज भी समाज में ऐसे ही रावण बैठे हैं – जो व्यवस्था को अपनी जागीर समझते हैं, जो सहायता को एहसान बना देते हैं, और जो अधर्म को सामान्य बना देते हैं। लेकिन जब एक सौरभ खड़ा होता है, तब वही गांव कुरुक्षेत्र बन जाता है। वही पंचायत सभा धर्मसभा बन जाती है, और वहीं तय होता है कि क्या हम अपने बच्चों को यह सिखाना चाहते हैं कि अन्याय को सहना सामान्य है, या फिर यह कि सत्य चाहे कितना ही कठिन हो, उसका साथ देना ही सनातन धर्म है।
आज के हमारे समाज की परिस्थितियों के मद्देनजर अगर इस घटना पे विचार करें, तो हमारी सहज बुद्धि से यही सुझाव आएगा की जो भी पैसे मिल रहे हैं, उन्हें चुपचाप स्वीकार कर लें। वैसे मैं ये स्पष्ट कर दूँ की इस घटना में महत्ता पैसे की नहीं है, बल्कि सौरभ के फैसले की है।
महाभारत में यदि अपने ही परिवार वालो का वध करना पड़ा था, तो वहाँ भी महत्ता सत्ता हासिल करने का नहीं था , बल्कि अधर्म के विरुद्ध युद्ध का था। श्रीराम ने माता सीता के लिए उतने कष्ट सहे, महा शक्तिशाली रावण से युद्ध करने से पहले नतीजा का एक बार भी नहीं सोचें। कोई अन्य राजा होता तो वो किसी दूसरी स्री का सहारा स्वीकार कर लेता और सीता को भूल जाता।
अर्जुन के धनुष बाण गिर पड़े थे, श्रीकृष्ण से उनके शब्द थे की राज्य के लिए अगर अपने ही भाइयों, पितामहों और सगे-सम्बन्धियों का वध करना पड़े, तो नहीं चाहिए मुझे ये राज्य। इसपे श्रीकृष्ण का अर्जुन को जवाब सर्वविदित है।
शायद यही वो क्षण था जब सौरभ को ये समझ आया कि अधर्म को देखकर चुप रह जाना, कहीं न कहीं उसी अधर्म को स्वीकार करना है। वह जानता था कि उसके पास अर्जुन की तरह श्रीकृष्ण नहीं हैं, और न ही श्रीराम की तरह हनुमान। लेकिन एक बात थी – आत्मा की आवाज। और गीता के अनुसार, "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।" अर्थात अपने धर्म में मर जाना भी श्रेष्ठ है, पराये धर्म का पालन भयावह होता है।
सौरभ ने निर्णय लिया – वह लड़ेगा। यह लड़ाई केवल पैसों की नहीं थी, यह लड़ाई थी अपने अस्तित्व, अपने सिद्धांतों और समाज में व्याप्त उस चुप्पी के विरुद्ध, जो अधर्म को मौन स्वीकृति देती है। उसने आरटीआई डाली, जनसुनवाई की प्रक्रिया शुरू की, और धीरे-धीरे उसकी बात फैलने लगी। पहले तो उसे अकेला समझा गया, पर धीरे-धीरे गाँव के कुछ और युवा भी उसके साथ जुड़ने लगे।
कई महीनों की दौड़भाग, अपमान, धमकियों और आर्थिक तंगी के बावजूद सौरभ डटा रहा। उसे राम की तरह वनवास तो नहीं झेलना पड़ा, लेकिन समाजिक बहिष्कार, तानों और व्यंग्य बाणों की पीड़ा सहनी पड़ी।
अगर वास्तविकता की बात करें, तो यह लड़ाई शायद सौरभ के लिए एक करुण अंत भी ला सकती थी – उसे झूठे मामलों में फंसाया जा सकता था, अपंग तक बनाया जा सकता था, या शायद उसकी आवाज़ को हमेशा के लिए दबा भी दिया जाता। क्योंकि आज भी जब कोई व्यक्ति व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होता है, तो सत्ता उस पर पूरी ताकत से वार करती है। फिर भी सौरभ का प्रयास व्यर्थ नहीं जाता – क्योंकि इतिहास साक्षी है कि सच्चे प्रयास, भले ही वे बलिदान में ही क्यों न बदल जाएं, अंततः विचारों के परिवर्तन का बीज बनते हैं।
यहां हम यीशु मसीह का उदाहरण देख सकते हैं, जिन्हें क्रूस पर चढ़ा दिया गया, मार दिया गया, लेकिन फिर भी उनके द्वारा प्रचारित शांति, प्रेम और क्षमा का संदेश आज भी जीवित है और करोड़ों लोगों के जीवन को दिशा देता है। उनका जीवन भले ही बलिदान में समाप्त हुआ, लेकिन उनके विचार अजर-अमर हो गए।
बुद्ध के जीवन में भी देखें, तो उन्होंने राजमहल का सुख छोड़कर सत्य की खोज में तप और त्याग का मार्ग अपनाया। उन्हें भी समाज ने पहले गलत समझा, विरोध किया, लेकिन उनके शांति और करुणा के संदेश ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया।
महात्मा गांधी भी जब सत्याग्रह की राह पर चले, तो अंग्रेजी सत्ता ने उन्हें बार-बार जेल में डाला, उन पर लाठियाँ बरसाई गईं, लेकिन उनका 'अहिंसा' और 'सत्य' का मार्ग आज भी भारत और दुनिया भर के आंदोलनों की प्रेरणा बना हुआ है।
सौरभ जैसे लोग, भले ही हार जाएँ, लेकिन वे समाज के भीतर एक विचार का बीज बोते हैं – एक ऐसा बीज जो समय के साथ अंकुरित होकर एक नई चेतना को जन्म देता है।
परन्तु जैसा कि श्रीराम ने भी कहा था – "धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः"। जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
अंततः, एक दिन जांच में सिद्ध हुआ कि योजना की राशि में गड़बड़ी हुई थी। मुखिया और पंचायत सचिव को जवाबदेह ठहराया गया। सौरभ को उसकी पूरी राशि मिली, पर उससे भी बड़ी बात ये थी कि अब गाँव में हर कोई जानता था – अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना जरूरी है।
सनातन की आत्मा – कर्म, साहस और सत्य की खोज
यह कहानी इसीलिए खास है क्योंकि इसमें कोई चमत्कार नहीं हुआ, कोई दैवीय शक्ति आकर सहायता नहीं की, बस एक सामान्य युवक ने अपनी आत्मा की आवाज सुनी, और उस पर चलने का साहस किया। यही सनातन धर्म का मूल है – सत्य के लिए खड़ा होना, चाहे परिणाम जो भी हो। सनातन धर्म मूर्तियों या कर्मकांडों से कहीं ज्यादा एक जीवनशैली है, जो प्रत्येक मानव को उसके स्वधर्म की पहचान कराती है।
सौरभ ने अपने निर्णय से यह सिद्ध कर दिया कि सनातन धर्म केवल किसी युग विशेष का दर्शन नहीं है, बल्कि यह हर युग में प्रासंगिक है। जब भी कोई मनुष्य अन्याय के विरुद्ध खड़ा होता है, सत्य का साथ देता है, वही सनातन धर्म का पालन करता है।
सनातन धर्म की यह विशेषता है कि वह किसी एक पुस्तक, एक समय या एक व्यक्ति तक सीमित नहीं है। यह धर्म समय की धारा के साथ चलता है, लेकिन अपने मूल को कभी नहीं छोड़ता। वह हमें यह नहीं सिखाता कि हम केवल पूजा-पाठ तक सीमित रहें, बल्कि यह सिखाता है कि हम अपने जीवन में धर्म, सत्य, और न्याय को जिएँ। सौरभ की लड़ाई केवल एक छोटी-सी योजना के लिए नहीं थी, बल्कि यह एक प्रतीक थी उस आदर्श की जो गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सिखाया था – "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
सौरभ ने निस्वार्थ होकर कर्म किया, संघर्ष किया, और अंत में सत्य की विजय हुई। यही सनातन धर्म का सार है – संघर्ष करो, डरो मत, और धर्म के मार्ग पर अडिग रहो। संसार चाहे तुम्हारे विरुद्ध हो, लेकिन अगर तुम आत्मा की आवाज़ को सुनते हुए सत्य के साथ खड़े हो, तो अंततः धर्म तुम्हारी रक्षा करता है। यही है सनातन – शाश्वत, अपरिवर्तनीय, और प्रत्येक युग में जीवंत।