स्वामी विवेकानंद जी की ऐसी विलक्षण थी बोध क्षमता
स्वामी विवेकानंद जी की बोध क्षमता
स्वामी विवेकानंद को कौन नही जानता। वो एक महान दार्शनिक और प्रखर बुद्धि वाले इंसान थे, जिनका लोहा विश्वभर के अध्यात्मिक गुरुओं के साथ-साथ वैज्ञानिकों ने भी माना। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस जी थे।
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स्वामी विवेकानंद की विलक्षण थी बोध क्षमता |
उनका व्यक्तित्व और बोलने की शैली इतनी प्रभवशाली थी कि कोई भी पहली नजर में ही प्रभावित हुए बिना नही रह पाता था।11 सितंबर 1983 को अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में उनके द्वारा दिया गया भाषण विश्वविख्यात है। जब उन्होंने भाषण के शुरुआत में अंग्रेजी में 'मेरे अमरीकी भाइयों और बहनों' कहा, पूरा हॉल तालियों की गूंज से भर गया।
दुनिया में ऐसी बहुत सारी चीजें है जिन्हें तर्क या विज्ञान से समझना संभव नही है। जैसे कि इंसान की समझने और बोध करने की क्षमता इतनी ज्यादा होती है जो विज्ञान या तर्क से परे है। ये बात अलग है कि हम अपनी क्षमताओं को पहचानते नही है।
स्वामी विवेकानंद जी के अनेकों किस्से विश्व भर में प्रषिद्ध है। उनमे बहुत सारी ऐसी क्षमताएं थी जिसे विज्ञान जगत पचा नही पाता था। तो आइए, आज आपको विवेकानंद के जीवन से जुड़ी ऐसी हो दो चमत्कारी घटनाओं की कहानी बताते हैं।
● विवेकानंद जी और जर्मन दार्शनिक
एक बार की बात है , स्वामी विवेकानन्द अमेरिका से लौटते हुए एक जर्मन दार्शनिक के यहाँ मेहमान के तौर पर रुके थे। वे दोनो एक टेबल के पास बैठकर आपस मे विज्ञान और अध्यात्म पर चर्चा कर रहे थे।
इस जर्मन दार्शनिक के मेज पर एक मोटी किताब रखी थी, वह उस किताब की बहुत बड़ाई कर रहा था। विवेकानंद बोले , "एक घंटे के लिए मुझे किताब दीजिये जरा मैं भी देखूं इसमे क्या खास है।"
उस दार्शनिक ने भौहें चढ़ाई, कहा, "ये किताब मैं हफ़्तों से पढ़ रहा हूं मैं इसे ठीक से समझ नही पा रहा, आप एक घंटे में क्या पता कर लेंगे, जबकि यह किताब जर्मन भाषा में है जो आपको आती भी नही।" विवेकानंद बोले, "आप मुझे बस एक घंटे के लिए ये किताब दे दीजिये।" उन्हें किताब दे दी गयी।
विवेकानंद जी वो किताब लेकर एकांत में बैठ गएँ, और उस किताब को अपनी हथेलियो के बीच बस दबा कर एक घंटे बैठे रहे। उन्होंने किताब का एक पन्ना भी नही पलटा।
उसके बाद वो वापस आएं और उन्होंने किताब लौटाते हुए कहा, "यह किताब आम लोगों के लिए फायदेमंद हो सकती है लेकिन इस किताब में कुछ भी खास नही है, इसमे जो भी बातें लिखी गई हैं वो अपने आप मे अधूरी हैं।"
अब तो उस दार्शनिक ने सोचा ये तो हठधर्मी की हद हो गयी, उसने कहा "आपने तो किताब को खोला तक नही फिर आप कैसे इस किताब के बारे में टिप्पणी करने लग गए, आपको ऐसा नही करना चाहिए।"
विवेकानंद जी शांति बोले, "मैंने इस किताब का एक एक पन्ना पढ़ लिया है, अगर आपको यकीन नही तो आप इस किताब के बारे में कुछ भी मुझसे पूछ लीजिए।" उसके बाद जो हुआ उसपर किसी को यकीन नही हुआ।
वो दार्शनिक उस किताब का बस पेज नंबर बोलता और विवेकानंद उस पेज में लिखी बाते शब्दशः बता देते। वो दार्शनिक अचंभित था, उसने पूछा, ये कैसे संभव है आपने तो किताब को खोला तक नही। तब विवेकानंद ने कहा, “इसीलिए तो मैं विवेकानंद हूं।”
'विवेक' का मतलब बोध होता है। उनका बचपन का नाम नरेंद्र था। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उनका नाम रखा था 'विवेकानंद', क्योंकि उनके पास ऐसी विशेष बोध-क्षमता थी।