सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की कहानी

अयोध्या के सूर्यवंशी राजा हरिशचंद्र अपनी धर्म परायणता और सत्यवादिता के लिए दूर-दूर तक विख्यात थे। वे भगवान राम के पूर्वज थे। 

एक बार महर्षि विश्वामित्र ने उनकी परीक्षा लेने की सोची। वो राजा के दरबार मे पधारें। राजा हरिश्चन्द्र ने उनका बहुत आदर-सत्कार कियें। फिर हाथ जोड़कर बोले, "महात्मन, आपके दर्शन से मैं धन्य हुआ, कृपा करके मुझे अपने आने के प्रयोजन से अवगत कराएं।"  
विश्वामित्र बोले, "राजन, मैं तुम्हारी निष्ठा से प्रसन्न हूँ। मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ। क्या तुम दे सकोगे?" 

हरिश्चन्द्र:- "आज्ञा करे प्रभु! यह राज्य आपका ही है।"

विश्वामित्र:- "मुझे तुम्हारी राजगद्दी चाहिए और साथ मे पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएं।"
राजा हरिश्चन्द्र एक क्षण की देरी किये बिना गद्दी से उठे और कहा, "मैं ऐलान करता हूँ, कि ये गद्दी आज से और अभी से आपकी है।कृप्या यह आसन ग्रहण करें।"

विश्वामित्र उठे, और जाकर गद्दी पर विराजमान हुए। 
और हरिश्चन्द्र को याद दिलाते हुए बोले, "ध्यान रहे, राज्य के साथ अब राज्य का कोष भी तुमने दान कर दिया है, इसलिए अब तुम कोष से पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएं नही ले सकते।"
राजा हरिश्चंद्र ने यह स्वीकार किया एवं मुुद्राएं चुुकाने के लिए कुछ समय लेकर, बेटे रोहिताश्व तथा पत्नी तारा के साथ साधारण कपड़े धारण कर महल छोड़कर चले गए।

महल से निकलकर वे तीनों एक बाजार में गए, जहाँ गुलामों की खरीद-बिक्री हो रही थी। वे तीनों भी वही खुद को बेचने के लिए खड़े हो गए। पहला ग्राहक आया जो कि एक सेठ था और उसे घर के काम काज के लिए एक नौकर की जरूरत थी। उसने रानी तारा को खरीदा। हरिश्चन्द्र ने उससे ये ये शर्त रखा की रोहिताश्व अपनी माँ के साथ ही रहेगा, जो उसने मंजूर कर ली।
इसके बाद भी उनके पास पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं नही थी।
तब उन्होंने खुद को चांडाल के हाथों बेच दिया, जिसका एक  शमशान घाट था। वह उन्हें शमशान घाट पर ले गया, और कहा कि यहाँ कोई भी दाह-संस्कार करने आये तो बिना मूल्य वसूल किये दाह संस्कार मत करने देना।
हरिश्चन्द्र को यह काम करने में वेदना का अनुभव होता। मृतकों के परिजन रोते-बिलखते दाह-संस्कार करने आते और उन्हें उनसे मूल्य वसूल करना पड़ता।
उधर तारा घरेलू नौकर के सभी काम करती। ऐसे ही दस-पंद्रह दिन बीत गये।

एक दिन रात के अंधेरे में एक महिला विलाप करते हुए अपने बेटे का शव लेकर शमशान घाट में आई। हरिश्चन्द्र ने आवाज से पहचान लिया कि यह उनकी पत्नी तारा है। जब उन्होंने बेटे रोहिताश्व का शव तो उनकी आंखों से आँसू बहने लगे।
 उन्होंने पूछा, "देवी, ये कैसे हो गया।"

रानी तारा ने रोते हुए कहा, "फूल चुनने बाग में गया था, वहाँ एक सर्प ने डंश लिया।" और फिर और जोर-जोर से रोने लगी। 
हरिशन्द्र की आंखों से अश्रु की धार बह रही थी। 
लेकिन उन्होंने खुद की संभालते हुए कहा, "देवी, मैं इस शमशान घाट का रखवाला हूँ। मैं किसी को भी बिना मूल्य चुकाए दाह संस्कार नही करने दे सकता। कृप्या मूल्य चुकाएं और बेटे का दाह संस्कार करें।"
 
रानी तारा ने बिलखते हुए गुहार लगाई, " मेरे पास कुछ भी नही है देने को। मेरे तन पर के कपड़ों के अलावा और कुछ भी नही है।"

राजा हरिश्चन्द्र अपनी यह हालत देखकर अधीर हो उठे। वे रोते हुए बोले, "देवी, शायद यह हमारे धर्म की परीक्षा की घड़ी है। अपने वस्त्रो को ही फाड़कर उसके एक भाग से अपना मूल्य चुका दो।
रानी ने जैसे ही वस्त्र फाड़ना प्रारम्भ किया, वैसे ही बिजली कड़की और वहाँ विश्वामित्र प्रकट हुए एवं अन्य देवता प्रकट हुए।
उन्होंने कहा, "राजन, तुमने धर्म परायणता का अद्भुत उदाहरण पेश किया है। तुम परीक्षा में सफल रहे।" 
फिर उन्होंने रोहिताश्व के माथे पर हाथ फेरा। वह उठ बैठा। 
राजा हरिश्चन्द्र और रानी तारा ने महर्षि विश्वामित्र का कोटि-कोटि नमन किया।

फिर विश्वामित्र बोले, "राजन तुम्हारी राजगद्दी तुम्हारा राह देख रही है। जाकर अपना राज्य सँभालो।"

राजा हरिश्चन्द्र अपने बेटे और पत्नी के साथ राज्य को लौट गए। यह घटना तीनो लोकों में फैल गयी। राजा हरिश्चन्द्र के सत्यवादिता और धर्मपरायणता के आगे देवता भी नतमस्तक थे।

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