मृत्यु क्या है।। मृत्यु का रहस्य
मृत्यु एक ऐसी घटना है जो जीवन के जन्म लेने के साथ ही सुनिश्चत हो जाती है। इस धरती पर जीवन अनेक रूपों में विद्यमान है, जैसे विभिन्न प्रकार के जानवर, पक्षियाँ, जलचर, कीड़े-मकोरे, इंसान इत्यादि। लेकिन प्रत्येक जीवन के सफर का अंत मृत्यु से ही होता है। तो क्या है ये मृत्यु? ये इतना महत्वपूर्ण क्यों है? अगर जीवन का अंत मृत्यु से ही है, तो जीवन है ही क्यों? और अंततः 'जीवन क्या है?'
मृत्यु को समझने के लिए यह जरूरी है कि आप पहले जीवन को समझे, क्योंकि अभी आप जीवन का हिस्सा हैं तो यह मृत्यु के अपेक्षाकृत ज्यादा सहज होगा। प्रत्येक जीव जब तक जीवित रहता है तब तक वह शारीरिक या मानसिक गतिविधि कर सकने के काबिल होता है, जैसे गति करना, साँस लेना इत्यादि। फिर मृत्यु मे ऐसा क्या होता है कि यह शरीर निर्जिव बन जाता है, और इसका क्षय शुरू हो जाता है? सिर्फ शरीर ही नही वरन सम्पूर्ण चेतना जैसे, यादें, भावनाएं, ज्ञान, अनुभव इत्यादि मृत्यु के साथ ही अंत को प्राप्त होते हैं।
मृत्यु शब्द से ही अक्सर लोग भयभीत हो जाते हैं। यह भय निश्चय ही कुछ खोने को लेकर होता है, जैसे, यह शरीर, चेतना, यादें, प्रियजन इत्यादि। लेकिन गौर करने पर आप पाएंगे की यह भय निरर्थक है, क्योंकि मृत्यु तो होना ही है और इसके साथ ही हर वो चिज, जिसे खोने का आपको भय है, उसका आपके लिए कोई महत्व नही रह जाएगा। किसी इंसान के लिए भौतिक दुनिया की हर चीज और उसके भीतर हो रही प्रत्येक मानसिक गतिविधि का महत्व तब तक ही है, जब तक प्राण ऊर्जा इस शरीर से जुड़ा हुआ है।
मृत्यु जैसी घटना के संदर्भ मे इस संसार की प्रत्येक वस्तु महत्वहीन है। अतः, मृत्यु से इस भौतिक दुनिया मे कुछ खोने का बात निरर्थक ही है। इसके बावजूद इन्सान में 'स्वयं' के अस्तित्व मे होने का जड़ इस कदर जमा हुआ है कि वह अपनी मृत्यु की कल्पना भी नहीं कर सकता। रोज हर आयु वर्ग के लाखों लोगों की मृत्यु होते हुए देखते सुनते हैं, लेकिन जब बात स्वयं की या अपने प्रियजन की आती है तब नश्वरता गले नहीं उतरता। इसका मुख्य कारण कुछ खोने का डर ही है।
अब वापस आते हैं अपने मूल प्रश्न पर कि 'मृत्यु क्या है?' देखिए, मृत्यु और जीवन दो अलग चीज नही है। किसी भी जीव के जन्म लेते ही उसकी मृत्यु की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। यह भले ही निश्चित नहीं की उसकी हर मृत्यु पल कब होगी, लेकिन वह निश्चित ही मृत्यु के तरफ अग्रसर है।
इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि, अगर कोई इंसान अपनी अगली साँस छोड़ने के बाद दुबारा साँस न ले, तो उसे मृत घोषित कर दिया जाएगा। इसके अलावा हर पल हमारे शरीर की अनगिनत कोशिकाएं मरती हैं और उनके स्थान पर नई कोशिकाओं का जन्म होता है। इसका अर्थ यही है कि जीवन और मृत्यु एक ही साथ घटित हो रहा है। लेकिन चूंकि हम भौतिक दुनिया के अनेक चिजो के साथ बहुत गहराई तक खुद का पहचान जोड़े हुए हैं, जैसे मेरा घर, मेरा पैसा मेरा बेटा इत्यादि, और इन्हीं सब चीजो के अस्तित्व मे होने से खुद का अस्तित्व मे होना सुनिश्चित करते हैं, इसलिए 'जीवन' या 'मृत्यु' के मूल प्रकृति को नहीं जान पाते।
अगर हम गहराई से देखे तो हम जिस मृत्यु से डरते हैं वह हमारी चेतना की मृत्यु हैं। क्योंकि शारीरिक स्तर पर मृत्यु मे क्या होता है, कितना दर्द होता है या दर्द होता ही नहीं है, इस बारे मे हमे कोई अनुभव नहीं है। लेकिन फिर भी हम डरते हैं, क्योंकि मृत्यु के साथ ही हम अपनी चेतना भी जैसे, पहचान, याद, अनुभव, स्वयं के अस्तित्व मे होने का बोध इत्यादि खो देंगे।
यही खोने का डर मृत्यु को भयावह बनाता है। तो मुख्य रूप से मृत्यु को दो भागों में बाँटा जा सकता है, एक शरीर की मृत्यु एवं दुसरी चेतना का मृत्यु।
शरीर का मृत्यु तब होता है जब प्राण ऊर्जा इससे जुड़ा नहीं रह पाता, और शरीर से अलग हो जाता है। ऐसा होने के अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे दुर्घटना, बिमारी, बुढ़ापा, आत्महत्या इत्यादि। इन सभी प्रक्रियाओं में जो मूल कारण है वो ये है कि शरीर प्राण-ऊर्जा को और ज्यादा संभालने के काबिल नहीं रह पाता।
एक स्तर पर देखें तो शरीर के मृत्यु की प्रक्रिया हर पल घटित हो रही है। आपके प्रत्येक साँस के साथ जीवन और मृत्यु एक साथ घटित हो रहा है। अगर आप अभी साँस छोड़ने के बाद साँस नहीं लेंगे तो आपको मृत घोषित कर दिया जाएगा। इसके अलावा, हर पल मानव शरीर की अनेक कोशिकाएं मरती हैं और उनके स्थान पर नई कोशिकाओं का जन्म होता है। जब नई कोशिकाओं का निर्माण होना बन्द हो जाएगा तो वह मृत्यु की स्थिति होगा। जो ऊर्जा शरीर के इन गतिविधियों को चलाती हैं उसे ही प्राण कहते हैं। प्राण और शरीर को आपस में जुड़े रहने के लिए खास सामंजस्य की आवश्यकता होती है। जब यह सामंजस्य या पकड़ किसी कारण से विचलित होती है तो पकड़ छुट जाता है, और इंसान की मृत्यु हो जाती है।