मौन के चमत्कारिक लाभ || मौन का महत्व

 ब्रह्माण्ड में प्रत्येक पदार्थ की अपनी अपनी आवाजें अथवा कम्पन्न है। आकाश, धरती, जल, अग्नि तथा पवन की अपनी अपनी आवाजे अथवा कम्पन्न हैं। ब्रह्माण्ड में मौजूद प्रत्येक कण किसी न किसी प्रकार के प्रतिध्वनि से कम्पित है। तो ऐसे में इंसान के मौन रहने को क्यों महत्वपूर्ण माना गया है? मौन का अर्थ क्या है? मौन रहने से क्या लाभ मिलता है? तथा अध्यात्म और योग विज्ञान में मौन का महत्व क्या है? तो आइए, आज हम इन्ही प्रश्नों के उत्तर जानने की कोशिश करेंगे। 

मौन का अर्थ

मौन के चमत्कारिक लाभ तथा महत्व


अकसर ऐसा देखा जाता है की मौन के नाम पर लोग बोलना बंद कर देते हैं, और किसी से बात नहीं करते हैं।  वे सोचते हैं, की मुँह से कोई शब्द बाहर नहीं निकलना ही मौन है, और ऐसा करके उन्हें मौन से होने वाला लाभ मिल जायेगा।

अगर आप कहीं से शुरुआत करना चाहते हैं, तो चुप रहना चुन सकते हैं, परन्तु इसको ही पूर्ण मौन समझना मूर्खता है, क्योंकि मौन बस यही तक सिमित नहीं है। अगर आप मौखिक रूप से चुप हैं, पर मन के भीतर विचारों का बाढ़ है, तो इसका मतलब है की आप मौन नहीं हैं।

मौन का अर्थ बस यह नहीं है की आप मौखिक रूप से चुप हो जाएँ। मौन का अर्थ है की आपका मन और मस्तिष्क पूरी तरह से शांत हो। मौखिक रूप से मौन होने का अर्थ है की आपके मुख से कोई शब्द बाहर नहीं आनी चाहिए। जबकि पूर्ण मौन की अवस्था में मन के भीतर भी कोई शब्द नहीं आने चाहिए।

मौन, जीवन को नकारने या खुद को कुछ करने से रोकने का तरीका नहीं है। बल्कि मौन का अर्थ अवचेतन से चेतनता की और बढ़ने से है।

मौन के चमत्कारिक लाभ


जब हम कोई चीज देखते हैं या सुनते हैं, तो हमरा दिल-दिमाग विचारों के जाल से घिर जाता है। किसी व्यक्ति या वस्तु को देखते ही उससे जुड़े हजारों विचार मन में आने लगते हैं, जो हमारे कण्ट्रोल में नहीं होता। तो ऐसे में पूर्ण रूप से मौन रहना बहुत मुश्किल लगता है।

विचारों का जाल कुछ ऐसा होता है की उससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल लगता है, तथा हम स्वयं में ही स्वयं को खोज नहीं पाते। हमें पता ही नहीं रहता की हम जो कर रहे हैं वो क्यों कर रहे हैं। हम हर पल स्वयं को सचेतन रख ही नहीं पाते। अपने वर्तमान में अपने आस पास की चीजों में हमारा सौ प्रतिशत ध्यान रह ही नहीं पाता। और इसका एक मुख्य कारण है, स्वयं हमारे ही भीतर का शोर। 

वास्तव में, ध्वनियाँ मज़बूरी के अलग अलग रूपों या आयमों का ही एक रूप है। तो, जब कोई सचेतन होना चुनता है, और मजबूर करने वाली चीजों से खुद को दूर रखना चाहता है, तो स्वाभाविक रूप से मौन हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है, की आप अपने मुँह और कान बंद कर लें। बल्कि इसका अर्थ है की इस रंगमंच रूपी संसार में चल रहे नाटक का पात्र न होकर, आप एक दृष्टा बनने की ओर अग्रसर हो रहे हैं। आप हर घटना को एक दृष्टा की भांति ग्रहण करने लगेंगे, न की एक कठपुतली की तरह। 

अगर ऐसा संभव हो जाता है, तो संसार की प्रत्येक चीज के लिए आपके भीतर एक अद्भुत स्पष्टता आ जाएगी। बिल्कुल श्रीकृष्ण की तरह ही आप हर घटना के साक्षी तो बनेंगे, लेकिन उसके कर्म के बंधन से आजाद होंगे।

आवाज हमेशा उथल पुथल की स्थिति से पैदा होती है। जब तक मन में उथल पुथल रहती है, तब तक मन मौन नहीं हो सकता है। मन में बेचैनी बनी रहेगी। जैसे ही उथल पुथल समाप्त होती है, मन मौन हो जाता है और अत्यंत सुकून महसूस होता है। अथवा यूँ कहें, अगर मन की बेचैनी और व्याकुलता दूर करना हो, तो मन का मौन होना आवश्यक है। 

योग विज्ञान में ऐसे अनेकों तरीके बताये गए हैं, जिनका पालन करके मन के मौन को प्राप्त किया जा सकता है। जिसमे सबसे महत्वपूर्ण तरीका है: ध्यान। ध्यान से आप अपने भीतर के सभी शोर और व्याकुलता को शांत कर सकते हैं, बशर्ते आप सही तरह से ध्यान करें।

मौन का महत्व


इंसान के अस्तित्व के सभी आयामों को अगर देखें, तो यह भौतिक, आध्यात्मिक तथा अभौतिक का मेल है। हमारा भौतिक आयाम इस बाहरी दुनिया से पूरी तरह से जुड़ा हुआ है तथा इस पर बाहर की प्रत्येक घटना का असर होता है। इसमें शरीर, मन, ज्ञानिंद्रियां इत्यादि शामिल है।

अभौतिक आयाम पूरी तरह से भौतिकता से अछूता होता है, तथा यही प्राण ऊर्जा होता है जिसके बिना शरीर गति नही कर सकता। 

इंसान का आध्यात्मिक आयाम पूर्ण रूप से स्थिर तथा हलचल रहित मौन की स्थिति में होता है। जबकि भौतिक आयाम में ही हर तरह की व्याकुलता तथा शोर विद्यमान रहता है।

 जिस प्रकार समुद्र के सतह पर हलचल होती है, और ध्वनि उत्पन्न होती है जबकि समुद्र की गहराई में पूर्ण स्थिरता होती है, कोई ध्वनि नहीं होती। उसी प्रकार इंसान के जीवन की सारी उथल-पुथल तथा बेचैनी उसके अस्तित्व के सतह पर ही होती है। केंद्र में कोई विचलित्तता नहीं होती, फलतः अपार शान्ति होती है। 

इंसान के अस्तित्व के सतह, अर्थात् भौतिक आयाम, पर ध्वनियों का एक जाल है, जबकि इसके केंद्र, अर्थात् अभौतिक आयाम, में पूर्ण स्थिरता है।

इंसान का आध्यात्मिक आयाम भौतिक और अभौतिक के बीच किसी पुल की तरह है। अध्यात्मिकता की मदद से हम अपनी चेतना में भौतिकता से अभौतिकता को जोड़ सकते हैं। जिसे आम भाषा में 'आत्मा से परमात्मा का मिलन' अथवा 'मैं कौन हूँ' का जवाब  कहा जाता है।

इस प्रक्रिया में मौन का एक प्रमुख योगदान है। हमारी चेतना में अभौतिक आयाम को शामिल करने के लिए यह आवश्यक है की हमारे भौतिक तथा अभौतिक आयामो के बीच एक समरसता हो। यह समरसता दोनों आयामों को जोड़ने वाला कोई भी गुण हो सकता है। मौन भी उसमे से एक है, तथा यह सबसे आसान मार्ग है।

जब हमारा मन पूरी तरह से मौन हो जाता है तो हमारा भौतिक आयाम, अभौतिक आयाम के साथ एक होना शुरू हो जाता है। तथा उचित मार्गदर्शन में रह कर, एक इंसान के रूप में हम पूरी तरह से एकाकार हो जाते हैं।

नोट:-  साथियों, आज के इस ज्ञानवर्धक पोस्ट में इतना ही। यहाँ दी गई सम्पूर्ण जानकारी सिद्ध योगियों और वेद ज्ञाताओं के निरिक्षण में दी जाती है। अगर यह पोस्ट अच्छी लगी तो अवश्य शेयर करके अपने प्रियजनों को भी लाभान्वित करें। अगर आपके मन कोई सवाल या सुझाव हो, तो कृपया कमेंट में जरूर हमें अवगत करवाएं। 

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