भावना क्या है।।भावना
भावना
भावना क्या है |
भावना क्या है?
भावना इंसान के मनोविज्ञान का वह हिस्सा है जो दो लोगों के आपसी जुड़ाव को तालमेल में रखता है। अर्थात, इंसान भावनाओं की ही मध्यस्थता से एक-दूसरे की खुशी का ख्याल स्वयं रखते हैं एवं वे जिनसे भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं, उनके लिए भलाई का कार्य करते हैं और जरूरत पड़ने पर कितनी भी कीमती वस्तु का त्याग खुशी-खुशी कर देते हैं।
भावनाएं ही दो इंसानों के बीच के रिश्तों को लाभ-हानि से परे ले जाकर उनके बीच शुद्धतम प्रेम के बीज बोती हैं। इसकी ताकत से ही लोग जीवन की अनेकों कठिनाइयों को झेलते हुए भी अपने प्रियजनों को खुशी देने के लिए हरसंभव प्रयास करते हैं। यही चीज हमें बौद्धिक स्तर पर अन्य प्राणियों से अलग बनाती है।
अगर किसी रिश्ते में बंधे दो व्यक्तियों के बीच तकरार होती है, तो भले ही वे कुछ समय के लिए एक-दूसरे से दूर हो जाएं, लेकिन फिर उनकी भावनाएं ही उन्हें एक-दूसरे के करीब खींच लाती हैं। वास्तव में, यही भावनात्मक बंधन हमें यह एहसास कराते हैं कि जीवन केवल तर्क या तर्कसंगत निर्णयों से नहीं चलता, बल्कि उसमें आत्मीयता, समर्पण और करुणा का भी बहुत बड़ा स्थान है।
भावनाओं की सकारात्मक और नकारात्मक शक्ति
भावनाएँ जितनी सुंदर होती हैं, उतनी ही जटिल भी होती हैं। यह देखा गया है कि जब इंसान भावनाओं में बहकर गलत निर्णय ले लेता है, तो वह अपनी ज़िंदगी को तबाह कर सकता है। ऐसा तब होता है जब भावनाओं के साथ स्वार्थ अत्यधिक जुड़ जाता है।
स्वार्थ ही कुछ पाने या खोने का एहसास दिलाता है और अनेकों मनोवैज्ञानिक विकारों का कारण बनता है। लेकिन अक्सर लोग भावना से जुड़े हुए स्वार्थ को देख नहीं पाते, और भावना के बारे में ही गलत धारणा बना लेते हैं। जब कोई व्यक्ति अपनी भावनाओं को स्वार्थ से मुक्त कर लेता है, तभी वह अपने रिश्तों को गहराई से महसूस कर पाता है और बिना किसी अपेक्षा के दूसरों की भलाई के बारे में सोचता है।
स्वार्थरहित प्रेम और त्याग किसी भी संबंध को उच्चतम स्तर पर ले जाता है, लेकिन यदि भावना में अंधापन आ जाए, तो यह दुख और विनाश का कारण भी बन सकता है। इसलिए, संतुलित भावनाएँ ही व्यक्ति को आत्मिक रूप से विकसित कर सकती हैं।
परिस्थितियों के अनुरूप बदलती भावनाएँ
कहा गया है कि यह दुनिया एक रंगमंच है और इंसान इस रंगमंच पर अपने-अपने किरदार निभा रहे हैं। मैं इस बात से सहमत हूँ, लेकिन इस अर्थ में नहीं कि हर इंसान का किरदार पहले से तय कर दिया गया है।
तात्पर्य यह है कि हर इंसान अपने किरदार का चयन स्वयं कर सकता है, तथा अपनी इच्छाशक्ति से उसे बदल भी सकता है।
एक कलाकार जब कोई नाटक करता है, तब वह कुछ देर के लिए अलग ही इंसान बन जाता है, जिसका स्वभाव भिन्न होता है, उसकी पसंद भी मूल इंसान से भिन्न रहती है। यही नाटक अगर आप अपने वास्तविक जीवन में करेंगे, तो लोग आपको उसी रूप में जानने लगेंगे, जिस रूप में आप उन्हें खुद को दिखाना चाहते हैं।
आप यह भी अवश्य मानेंगे कि यदि आप किसी जीवनशैली को अपनाना चाहते हैं, तो कुछ दिन उसे अमल में लाने पर वही आपका व्यक्तित्व बन जाता है। यहाँ मैं सिर्फ व्यवहार की ही बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि भावनाओं को भी अपने अनुसार दिशा दी जा सकती है।
इंसान अगर दुखी होता है, तो यह उसका स्वयं का चुनाव होता है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इंसान की परिस्थितियाँ उसे दुखी या सुखी बनाती हैं।
प्रसिद्ध जर्मन दर्शनशास्त्री एकहार्ट टोल ने अपनी पुस्तक "द पॉवर ऑफ नाऊ" में लिखा है—
"इंसान के दुख का कारण उसकी परिस्थितियाँ नहीं होतीं, बल्कि वर्तमान परिस्थिति को स्वीकार न करने की चेष्टा उसे दुख में डुबो देती है।"
यह सत्य भी है, क्योंकि हम सभी जानते हैं कि हमारे आस-पास जितने भी लोग हैं, उनमें से कोई भी कभी भी प्राण त्याग सकता है। लेकिन ऐसा होने पर हम सभी आश्चर्य करते हैं कि यह कैसे हो गया! इसे स्वीकार करने में जितना समय लगता है, उतने समय के लिए हम दुखी रहते हैं, और फिर अपने दिनचर्या में लौट आते हैं।
स्वीकार्यता ही मानसिक शांति की कुंजी है।
हमारी भावनाएँ परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं, लेकिन यदि हम अपनी चेतना को विकसित करें, तो हम इन्हें नियंत्रित भी कर सकते हैं।
अंतर्मन की चेतना और सच्ची खुशी
मनुष्य का मन चंचल होता है। यह बिना सोचे-समझे केवल क्षणिक सुख के लिए किसी भी कार्य को करने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन हमारी अंदरूनी चेतना हमें हमेशा यह बताती है कि क्या सही है और क्या गलत।
आज वही अंदरूनी चेतना लोगों के भीतर जैसे समाप्त होती जा रही है। लोग यह भी नहीं सोचते कि वे जो कर रहे हैं, वह उनके लिए अच्छा है या बुरा। हम अपने क्षणिक सुख के लालच में अपनी उस ओजस्वी चेतना को दबाते जा रहे हैं, जो हमें भविष्य के दर्शन करा सकती है।
मेरा अनुमान है कि इसी चेतना को लोग "आत्मा" कहते हैं।
यदि मनुष्य अपने भीतर की चेतना को जागृत कर ले, तो वह केवल क्षणिक सुखों के पीछे भागने के बजाय सच्ची खुशी की तलाश करेगा। सच्ची खुशी बाहरी परिस्थितियों में नहीं, बल्कि हमारी अपनी मानसिक अवस्था में निहित होती है।
वास्तविक सुख वही है, जो परिस्थिति बदलने पर भी बना रहे।
जो व्यक्ति अपनी भावनाओं को समझता है और उन्हें संतुलित रखता है, वही व्यक्ति आत्मिक रूप से परिपक्व होता है और जीवन को गहराई से जी पाता है।
निष्कर्ष
भावनाएँ इंसान को जोड़ती भी हैं और भटकाती भी हैं। यह इस पर निर्भर करता है कि हम अपनी भावनाओं को कैसे दिशा देते हैं। यदि हम इन्हें समझदारी से नियंत्रित करें और स्वार्थरहित प्रेम के मार्ग पर चलें, तो हम अपने जीवन को संतुलित, आनंदमय और सार्थक बना सकते हैं।
"मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत उसकी भावनाएँ हैं, लेकिन यदि इन्हें सही दिशा न मिले, तो यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी बन सकती हैं।"
Atma hi parmatma or Mann hi Maya dono ek roop ki kahani h manav samaj.....